हे दीनबन्धु,

मैंने न तो अभिमान को छोड़कर साधु, संतों और महात्माओं की आराधना की । न ही उनके बताये सीधे-सच्चे अध्यात्म के मार्ग पर चला । न आस्तिक बुद्धि से तीर्थों का सेवन किया । पूजा, अर्चना, ध्यान, जप, तप से तो मैं मूर्ख सदा ही दूर रहा । अब जीवन के इस अंतिम पड़ाव पर आकर ऑंखें खुली हैं, परन्तु अब तो बहुत देर हो गयी है । रोग, शोक, आदि , व्याधि और ऋणों के अज्ञात भय से अब तो हृदय कांपने लगा है । मैं भले ही नीच, महापापी, निन्दित आदि सब कुछ हूँ, परन्तु हूँ तो आपका अकिंचन दास  ही ।

हे प्रभु अब तो आप ही मेरी गति हैं । हे दीनानाथ, बस अब इतना बल अवश्य दे दें कि अंतिम साँस तक निरंतर आपका ध्यान बना रहे ।

किस संत, महात्मा, महापुरुष, फ़क़ीर, औलिया, दरवेश आदि की कृपा और उनकी चरण राज मिल जाये जो जीवन का धेय पूरा हो, इस उदेश्य से यह "संत वाणी" ग्रुप नित्य संत दर्शन  और उनकी अहेतु की कृपा के लिए बनाया है ।

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